Friday, May 21, 2010

बरखा की भोर - डॉ. देवव्रत जोशी

बनपाँखी बूँदोँ का शोर :
बरखा की भोर।

सूरज दिखाई नहीं देता साफ
अधजागा लेटा हूँ ओढकर लिहाफ
नाच रहे हैं अब तक आँखों में सपनों के भोर ।

मेघोँ की पँखुरियोँ में बंदी किरणोँ के छन्द धरती से उठकर फैली है आकाशोँ में माटी की गंध
स्नानवती दिशाएं समेट रहीं
आँचल के छोर ।

बनपाँखी बूँदोँ का शोर :
बरखा की भोर।

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