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Friday, May 13, 2011

हम- तुम - अनुपम कर्ण

(1)

कुछ कदमों के फासले थे, 
रह गया इधर मैं, उधर तुम 
ज़माना बीच में खडा कहता रहा 
हारा मैं, जीत गए तुम !
(2)

खामोश सी थी जिंदगी 
हम भी चुप से रह गए
तुम ने चुप्पी तोड़ दी 
और फासले फिर बढ़ गए !
(3)

कुछ बातें ..........................
कुछ  किस्से......................
कुछ लम्हे .........................
कुछ यादें ..........................
...........................और मैं था !
..........................और तुम थे!

कितनी बातें ......................
कितने किस्से ...................
कुछ चाहे ...........................
कुछ अनचाहे ....................
..........................कहीं मैं था!
.........................कहीं तुम थे!

किसकी बातें .....................
किसके किस्से ..................
कितने पुराने ....................
कितने अनजाने ...............
.........................क्यों मैं था?
........................क्यों तुम थे?

Wednesday, April 20, 2011

कुछ पंक्तियाँ - सुभद्रा कुमारी चौहान

ये चंद पंक्तियाँ वाकई बचपन की यादों से बड़ी गहराई से जुड़े हैं| ये पंक्तियाँ इसलिए भी खास है क्योंकि मैंने अपनी माँ को अपनी मधुर लय में अक्सर इसे गुनगुनाते हुए सूना है| 
ये पंक्तियाँ सुभद्रा जी की प्रसिद्द कविता " मेरा बचपन " से लिया गया है | जितनी उनकी कवितायें प्रेरणादायक है उससे भी कहीं ज्यादा उनकी जीवनी !









बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥

चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?

ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥

किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥

रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥

मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥

Sunday, December 5, 2010

गधे खा रहे चवनप्रास देखो - स्व.ओमप्रकाश आदित्य

इधर भी गधे हैं , उधर भी गधे हैं    
जिधर भी देखता हूँ गधे ही गधे हैं

गधे हंस रहे , आदमी रो रहा है
 हिन्दोस्तान में ये क्या हो रहा है

 जवानी का आलम गधों के लिए है
 ये रसिया ,ये बालम गधों के लिए है

 ये दिल्ली ये पालम गधों के लिए है
 ये संसार सालम गधों के लिए है

 पिलाए जा साकी ,पिलाए जा डट के
 तू व्हिस्की के मटके पे मटके पे मटके

 मैं दुनिया को जब भूलना चाहता हूँ
 गधों की तरह झूमना चाहता हूँ

घोड़ों को मिलती नही घास देखो
 गधे खा रहे चवनप्रास देखो

 यहाँ आदमी की कहाँ कब बनी थी
 ये दुनिया गधों के लिए ही बनी थी

 जो गलियों में डोले वो कच्चा गधा है
 जो कोठे पे बोले वो सच्चा गधा है

 जो खेतों में दीखे वो फसली गधा है
 जो माइक पे चीखे वो असली गधा है

 मै क्या बक गया हूँ , ये क्या कह गया हूँ
 नशे की पिनक मे कहाँ बह गया हूँ
 
 मुझे माफ करना मैं भटका हुआ था
 वो ठरॉ था भीतर जो अटका हुआ था

Tuesday, November 2, 2010

कुछ पंक्तियाँ - जानकी बल्लभ शास्त्री

कहाँ मिले स्वर्गिये सुमन 
मेरी दुनिया मिटटी की ,
विहस बहन क्यों तुझे सताऊं
कसक बताकर जी की 

बस आखिरी विदा लेता हूँ 
आह यही इतना कह 
मुझसा भाई हो न किसी का 
तुझ सी बहन सभी की !!


____________________________
 मैं मगन मझधार में हूँ , तुम कहाँ हो !


दीप की लौ अभी ऊँची , अभी नीची
पवन की घन वेदना , रुक आँख मीची
अन्धकार अवंध , हो हल्का की गहरा
मुक्त कारागार में हूँ , तुम कहाँ हो
मैं मगन मझधार में हूँ , तुम कहाँ हो !

Monday, November 1, 2010

कुछ पंक्तियाँ - प्रसाद

जो घनीभूत पीड़ा थी 
मस्तक में स्मृति सी छाई 
दुर्दिन में आंसू  बनकर 
वह आज बरसने आयी 

शशिमुख पर घूँघट डाला 
अंचल में नैन छिपाए 
जीवन की गोधुली में 
कुतूहल से तुम आये 

(-आंसू )



बीती विभावरी जाग री !

                    अम्बर पनघट  में डुबो रही                  
                      तारा घाट उषा नागरी |

खग-कुल  कुल-कुल सा बोल रहा
किसलय का अंचल डोल रहा  ,

                  लो यह लतिका भी भर लायी
                  मधु मुकुल नवल रस गागरी |

अधरों में राग अमद पिए
अलको में मलयज बंद किये

                  तू अब तक सोई है आली
                  आँखों में भरे विहाग री |

Wednesday, October 27, 2010

कुछ पंक्तियाँ - बच्चन


 मैं एक जगत को भुला 
मैं भुला एक ज़माना 
  कितने घटना चक्रों में , 
  भुला मै आना-जाना 
 पर दुःख-सुख की वह                                           
 सीमा, मैं पाया साकी 
जीवन के बाहर जाकर 
जीवन में तेरा आना


कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी ,
 कहाँ गयी सुरभित हाला  
कहाँ गया स्वप्निल मदिरालय 
कहाँ गया स्वर्णिम प्याला 
पीनेवालों ने मदिरा का मूल्य
हाय कब पहचाना 
फुट चूका जब मधु का प्याला ,
 टूट  चुकी जब मधुशाला !


सखि यह रागों की रात नही सोने की                                                         
बात जोहते इस रजनी की वज्र कठिन दिन बीते 
किन्तु अंत में दुनिया हारी और हमीं तुम जीते 
नरम नींद के आगे अब क्यों आँखें पंख झुकाए
सखि यह रातों  की रात नही सोने की !   


और अंत में 


इस पार प्रिये मधु है तुम हो 
उस पार न जाने क्या होगा !

Wednesday, October 20, 2010

कुछ पंक्तियाँ - कैफी आज़मी

कभी जमूद कभी सिर्फ इन्त्शार  सा है
 जहां को अपनी तबाही का इंतज़ार सा है

मनु की मछली न कश्ती की नूर और ये फज़ा 
कि कतरे-कतरे में तूफ़ान बेकरार सा है 

मैं किसको अपने गिरेबान का चाक दिखलाऊं 
कि आज दामने-यजदान  भी तार-तार सा है 

सजा सवार के जिसपे हज़ार नाज़ किये 
उसी पे खालिक-ए-कौनेन भी शर्मशार सा है

कोई तो सूद चुकाए कोई तो ज़िम्मा ले 
उस इन्कलाब का जो आज तक उधार सा है !! 
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