दिल जब याद उन दिनों को करता है
बातें बार बार करता है
**पहला SESSIONAL **
पहला SESSIONAL ,EXAM नहीं था
था वो कोई आदमखोर
हम भी कहाँ भागने वाले
यूद्ध छेड़ दिया घनघोर
सारी रात डटे रहे थे हम
लेकर कलम रूपी औजार
कुछ तो मथुरा दास बन गए
कुछ सुनील सन्नी जैकी श्राफ
** कुछ बातें कुछ शर्तेँ **
पूछो न , क्योँ हम लड़ते थे
वो , बात बात पर अड़ते थे
कृष्ण जन्मभूमि असली है या
नकली , फैसला रात भर में करते थे
जोश जोश में होश नहीं था
होश नहीं था दिल क्योँ फिर बेहोश नहीं था
शर्त लगी , वो अमृतसर जाने की
मत पूछो , क्योँ ? पैदल जाने की
दो खेमोँ में लगी शर्त थी
शब आधी , गीली पीली हरी शर्त थी
चल पड़े सभी , नहीं किसी ने भी किया इनकार
सबने सोचा हमसे पहले , उतर जाएगा इसका बुखार
**<बर्थ डे >**
किसी के बर्थ डे पे किसी को पीटना
था ये होस्टल का अपना रीत
रीत-वीत सब हवा हो जाती
वो ज्योँहि दिखता पवन मीत
**<नाम>**
सबके सब जाने अनजाने
नए नए नामों से जाने जाते
लाल बादशाह , नेताजी चडड्डी
तो कुछ आए गए निकले फिसड्ढी
**<होली >**
बेरंग पानी से खेल खेलकर
क्या रंग था निखड़ा होली का
दिल रीता , होस्टल रीता
पर , रंग न रीता होली का !
Friday, May 28, 2010
Thursday, May 27, 2010
सलीका बाँस को बजने का जीवन भर नहीं होता - JAYKRISN ROY
सलीका बाँस को बजने का जीवन भर नहीं होता
बिना होठोँ के बंसी का भी स्वर नहीं होता
किचन में माँ बहुत रोती है पकवानोँ की खुशबू में
किसी त्योहार पर बेटा जब उसका घर नहीं होता
ये सावन गर नहीं लिखता हसीँ मौसम के अफसाने
कोई भी रंग मेँहदी का हथेली पर नहीं होता
किसी भी बच्चे से उसकी माँ को वो क्योँ छीन लेता है
अगर वो देवता होता तो फिर पत्थर नहीं होता
परिँदे वो ही जा पाते हैं ऊँचे आसमानोँ तक
जिन्हेँ सूरज से जलने का तनिक भी डर नहीं होता
बिना होठोँ के बंसी का भी स्वर नहीं होता
किचन में माँ बहुत रोती है पकवानोँ की खुशबू में
किसी त्योहार पर बेटा जब उसका घर नहीं होता
ये सावन गर नहीं लिखता हसीँ मौसम के अफसाने
कोई भी रंग मेँहदी का हथेली पर नहीं होता
किसी भी बच्चे से उसकी माँ को वो क्योँ छीन लेता है
अगर वो देवता होता तो फिर पत्थर नहीं होता
परिँदे वो ही जा पाते हैं ऊँचे आसमानोँ तक
जिन्हेँ सूरज से जलने का तनिक भी डर नहीं होता
अपनी गजलों पर हमेशा तालियाँ अच्छी लगी - JAYKRISN ROY TUSHAR
फूल जंगल झील पर्वत घाटियाँ अच्छी लगी
दूर तक बच्चोँ को उड़ती तितलियाँ अच्छी लगी
जागती आँखों ने देखा इक मरुस्थल दूर तक
स्वप्न में जल में उछलती मछलियाँ अच्छी लगी
मूँगे माणिक से बदलते हैं कहाँ किस्मत के खेल
हाँ , मगर उनको पहनकर उँगलियाँ अच्छी लगी
देखकर मौसम का रुख तोतोँ के उड़ते झुंड को
धान की लंबी सुनहरी बालियाँ अच्छी लगी
दूर थे तो सबने मन के बीच सूनापन भरा
तुम निकट आए तो बादल बिजलियाँ अच्छी लगी
उसके मिसरे पर मिली जब दाद तो मैं जल उठा
अपनी गजलों पर हमेशा तालियाँ अच्छी लगी
जब जरूरत हो बदल जाते हैं शुभ के भी नियम
घर में जब चूहे बढ़े तो बिल्लियां अच्छी लगी
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