सहर हूँ मैं ,
सहर हूँ मैं
धीमे-धीमे दबे पाँव
घंटो तुझे देखती रहती
तुम्हारे सोने के बाद
ताकि ,कोई मच्छर न बैठने पावे ,वो
नज़र हूँ मैं !
तमाम जिंदगी चाहे वो अच्छे रहे या बुरे
खुद मट्ठा खाती रही
ताकि तुझे दही खिला सकूँ , हाँ
शज़र हूँ मैं !
मैं जानती हूँ ,
तुम्हारे लिए तुम्हारे बीवी ,तुम्हारे बच्चे ,
तुम्हारा आफिस ही तुम्हारा सबकुछ है
मैं कुछ भी नही !
और यदि कुछ हूँ तो कितना
कितना..? बता पाओगे तुम !
अपनी सोसाइटी अपना स्टेट्स बनाए रखने के लिए
एक बार फिर से तुम दही खाओगे...और ...
तुम, तुम्हारे बच्चे दही खाते रहे
इसलिए मैं मट्ठा खाऊँगी
और , चुप रहूंगी....आखिर
मदर हूँ मैं