Sunday, November 7, 2010

मदर हूँ मैं -अनुपम कर्ण

सहर हूँ मैं ,
तुम्हारे दर्द के हर रात का 
सहर हूँ मैं 

धीमे-धीमे दबे पाँव 
घंटो तुझे देखती रहती 
तुम्हारे सोने के  बाद 
ताकि ,कोई मच्छर न बैठने पावे ,वो 
नज़र हूँ मैं !

तमाम जिंदगी चाहे वो अच्छे रहे या बुरे 
खुद मट्ठा खाती रही 
ताकि तुझे दही खिला सकूँ , हाँ 
शज़र हूँ मैं !

मैं जानती हूँ ,
तुम्हारे लिए तुम्हारे बीवी ,तुम्हारे बच्चे ,
तुम्हारा आफिस ही तुम्हारा सबकुछ है 
मैं कुछ भी नही !
और यदि कुछ हूँ तो कितना 
कितना..? बता पाओगे तुम !
अपनी सोसाइटी अपना स्टेट्स बनाए रखने के लिए 
एक बार फिर से तुम दही खाओगे...और ...
तुम, तुम्हारे बच्चे दही खाते रहे 
इसलिए मैं मट्ठा खाऊँगी 
और , चुप रहूंगी....आखिर 
मदर हूँ मैं    



:- On Vatvriksh
  


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