कब सरहदों से
फ़ायदा हुआ इस ज़मीं को?
अभी भी दिल नहीं भरा,
बार-बार बाँट कर इस ज़मीं को?
सरहदें जैसे बदनुमा दाग़ हैं
इस ज़मीं के चेहरे पर,
खुदगर्ज़ी के चाकू से फिर
ज़ख़्मी ना करो इस ज़मीं को
अगर टूट कर ही निजात मिलती,
तो सरहद पार सिर्फ खुशियाँ ही दिखती,
सबक लो तारीख़ से
मत दो सज़ा और इस सरज़मीं को
ज़मीं को ना बांटों,
दिलों को जोड़ लो,
मिल के रिझाओ कामयाबी को,
इतेहाद से सजाओ इस ज़मीं को
मुद्दा नई सरहद का नहीं
खुशियों का हो, अमन का हो
गुलों से खूबसूरत चेहरे खिल जाएं,
अगर टूट कर ही निजात मिलती,
ReplyDeleteतो सरहद पार सिर्फ खुशियाँ ही दिखती,
सुन्दर नज़रिये की रचना
sachchai ka aaina dekhati hui khubsurat rachna. aabhar.
ReplyDeleteआपकी सराहना और प्रोत्साहन के लिए शुक्रिया!
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसरहदें जैसे बदनुमा दाग़ हैं
ReplyDeleteइस ज़मीं के चेहरे पर,
खुदगर्ज़ी के चाकू से फिर
ज़ख़्मी ना करो इस ज़मीं को
kash ye log samajh pate !
badhiya post !
bahut badhiya
ReplyDelete