मेरे पड़ोस में,
लिखते समय जेहन में गुलज़ार दा की आवाज़ थी....सो इसे उसी तरीके से पढेंगे तो शायद ज्यादा मजा आएगा!
ढ़ेड-एक साल का एक बच्चा रहता है
वो कन्नड़ है और मैं हिंदी,
गाहे-बगाहे जब भी पास से गुजरता हूँ,
इठलाता खिलखिलाता सामने दिखता है
मेरे घुटनों से आ लिपटता है
मैं देखता हूँ पीछे उसकी दादी
दूध और गुड़ी रोटी
का कटोरा लिए पास बुला रही है
मैं पूछता हूँ क्यूँ रे खाना नही खाना?
वो नही में सर डुलाता है
उसकी दादी समझ नही पाती, पर
वो नादान समझ लेता है
सारा खेल आँखों का है,
बचपन में हम किसी की गोद
में जाने से पहले
उसकी आँखों में झांककर
दोस्त और दुश्मन को ताड़ लेते थे
पर अब तो नजारा दुसरा है,
अब तो आँखे भी कमजोर है
और होठ भी सिल गए हैं
बात सिर्फ दो मिनट की है....
पर वो ‘नट’ मुझे बचपन वाली हठ याद दिला देता है!
लिखते समय जेहन में गुलज़ार दा की आवाज़ थी....सो इसे उसी तरीके से पढेंगे तो शायद ज्यादा मजा आएगा!
इस कविता का भाव बड़ा प्यारा है। काश यह बचपन यूं ही रुक जाता और हम आंखों की भाषा से काम चला लेते ...!
ReplyDelete