आहिस्ता -आहिस्ता
एक- एक कर
झरते हैं शब्दबीज
मन के भीतर !
हरे धान उग आते
परती खेतों में
हहराते सागर हैं
बंद निकेतोँ में
धूप में चिटखता है
तन का पत्थर !
राह दिखाते सपने
अंधी खोहो में
द्रव सा ढलता मैं
शब्दों की देहोँ में
लिखवाती पीड़ा है
हाथ पकड़कर !
फसलें झलकेँ जैसे
अँकुरे दानों में
आँखों के आँसू
बतियाते कानों में
अर्थों से परे गूँजता
मद्धिम स्वर !