मंज़र-ए-इश्क का फूलना फलना
ये दरिया-ए-मय है या फिर कोई दवाखाना
देर शब् तेरी जुम्बिश की आखिरी वो खलिश
हमने खोया था तुझे अब तेरा पाना
रूह को भी गम है तेरे फिराक का
कैदे-हयात में इक आस्तां है सागर-ओ-मीना
तुम थे तो एक शहर थी हयात में
अब एक दलील हूँ उस्सक बूटों का बना
इश्क एक दरिया-ए-ज़ख्म है या बाज़ीचा-ए-अत्फाल
मुझसे पूछो न , न किसी मीरां से पूछना
उसने दोस्त्दारों से पर्देकारी की, पर्देकारी में दोस्तदारी
सौदेबाज़ों से दोस्ती न की , वो दोस्ती में खूब सौदा करना
आज की रात फिर नही पढ़ा, ग़ज़ल लिख्खा है अनुपम ने
जो अब तलक समझ में नही आया, तो क्या अब समझ के करना !