Friday, October 15, 2010

फिर हाथ हिलने लगते हैं - अनुपम कर्ण




आँखों के सामने 
गिरता है डब्लू टी सी 
कानो में गूंजता है 
२६/११ के बंदूकों की आवाज़ 
यादें ताज़ा कर देती है ये मेरियट होटल की 

सपनो में जब 
इराक का सफर करता हूँ 
एक भी घर नही मिलता 
शुकुन-ओ-चैन का 
फिर लौटता हूँ , मैं 
फिलिस्तीन , तालिबान , पाकिस्तान 
होते हुए कश्मीर को 
सुनता हूँ तिब्बत के बौद्ध-भिक्षूओं की मौन आवाजें 

लगता है
हर जगह एक चीख है
जो हर मौत के साथ 
दबा दी जाती है 
पर , मौत की चीखें 
आसानी से नही दबते 
अपनी प्रतिध्वनियों के साथ
और  विकराल हो जाते हैं 

इससे घबराकर मैं 
कानो को ,  आँखों को 
बंद कर लेता हूँ 
फिर हाथ हिलने लगते हैं  

10 comments:

  1. बहुत बढ़िया अनुपम जी ! लाजवाब

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  2. क्या आप एक उम्र कैदी का जीवन पढना पसंद करेंगे, यदि हाँ तो नीचे दिए लिंक पर पढ़ सकते है :-
    1- http://umraquaidi.blogspot.com/2010/10/blog-post_10.html
    2- http://umraquaidi.blogspot.com/2010/10/blog-post.html

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  3. बहुत सुंदर.
    दशहरा की हार्दिक बधाई ओर शुभकामनाएँ...

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  4. आप सबको बहुत-बहुत धन्यवाद, इसे पसंद करने के लिए.
    साथ ही दशहरा की हार्दिक शुभकामनाएं !!!!!!!!
    @उम्र कैदी/ आशुतोष जी - लिंक के लिए धन्यवाद जल्द ही पढ़ कर अपनी अभिव्यक्ति प्रस्तुत करूँगा .
    @योगेन्द्रनाथ जी आपका 'bio'दिल को भा गया
    काश हम सभी मिलकर इस सोच को आगे बढाएं !!
    @सुरेन्द्र सिंह जी हौसलाफजाई के लिए शुक्रिया !

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  5. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपने बहुमूल्य विचार व्यक्त करने का कष्ट करें

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  6. bahut khoobsurat aur kadwa sach kehti rachna...

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