मैं सुबह के चाँद का एहसास लेकर क्या करूंगा ।
तुम न होगी तो वहां आकाश लेकर क्या करूंगा । ।
तुम न होगी तो वहां आकाश लेकर क्या करूंगा । ।
हो तरल कुछ तो
जिसे मन-प्राण-कंठों में उतारें
धुप की संवेदना
जल की मछलियों को दुलारे
यह नहीं तो उस तरफ संन्यास लेकर क्या करूंगा ।
तुम न होगी तो वहां आकाश लेकर क्या करूंगा । ।
एक गोकुल प्राण में हो
एक गोकुल प्राण ऊपर
मन कहीं पर रह गया हो
पोर भर का स्पर्श होकर
दिक् तुम्हारा, मैं उधर कम्पास लेकर क्या करूंगा ।
तुम न होगी तो वहां आकाश लेकर क्या करूंगा । ।
जो न लिखना तो
कहे क्या ख़ाक गूंगी व्यंजनाएँ
सात रंगों में ढली
उनचास पवनों की व्यथाएँ
गर बेमौसम तो वहां बसंताभास् लेकर क्या करूंगा ।
तुम न होगी तो वहां आकाश लेकर क्या करूंगा । ।
द्वारा रचित - हृदयेश्वर
‘गीतायन‘, प्रेमनगर, रामभद्र (रामचौरा), हाजीपुर-844101, वैशाली
(रविन्द्र प्रकाश जी को विशेष धन्यवाद, जिन्होंने इस सरल पर सुन्दर कविता को वटवृक्ष पर पोस्ट किया)