Friday, October 22, 2010

तेरे बगैर भी मैं जी लेता हूँ - अनुपम कर्ण

                          






चलो कुछ तो था 
की, आज भी याद आता हूँ 
जो , तेरी डायरी के 
पन्नों में उभर आता हूँ 

दिन तो आफिस में 
आराम से गुजर जाता है 
रात की सर्द ख़ामोशी में 
तेरी यादों को ओढ़ लेता हूँ 

शाम को बालकनी में
महसूस होता है ,
धुआं -धुआं सा
कभी ये तेरी बातों से आजिज थे
अब तेरी यादों से लिपटे .....

किचेन में 
चाय बनाते हुए 
बेशक , कोई आवाज़ नही आती 
पर , कुछ प्रतिध्वनिया 
टूटे हुए प्रेमरस का कचड़ा 
घेर लेता है मुझे 
तुम कभी लौटती 
तो देख पाती 
तेरी कमी गुसिल तो नही , लेकिन 
तेरे बगैर भी मैं जी लेता हूँ

Wednesday, October 20, 2010

कुछ पंक्तियाँ - कैफी आज़मी

कभी जमूद कभी सिर्फ इन्त्शार  सा है
 जहां को अपनी तबाही का इंतज़ार सा है

मनु की मछली न कश्ती की नूर और ये फज़ा 
कि कतरे-कतरे में तूफ़ान बेकरार सा है 

मैं किसको अपने गिरेबान का चाक दिखलाऊं 
कि आज दामने-यजदान  भी तार-तार सा है 

सजा सवार के जिसपे हज़ार नाज़ किये 
उसी पे खालिक-ए-कौनेन भी शर्मशार सा है

कोई तो सूद चुकाए कोई तो ज़िम्मा ले 
उस इन्कलाब का जो आज तक उधार सा है !! 
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