की, आज भी याद आता हूँ
जो , तेरी डायरी के
पन्नों में उभर आता हूँ
दिन तो आफिस में
आराम से गुजर जाता है
रात की सर्द ख़ामोशी में
तेरी यादों को ओढ़ लेता हूँ
शाम को बालकनी में
महसूस होता है ,
धुआं -धुआं सा
कभी ये तेरी बातों से आजिज थे
अब तेरी यादों से लिपटे .....
किचेन में
चाय बनाते हुए
बेशक , कोई आवाज़ नही आती
पर , कुछ प्रतिध्वनिया
टूटे हुए प्रेमरस का कचड़ा
घेर लेता है मुझे
तुम कभी लौटती
तो देख पाती
तेरी कमी गुसिल तो नही , लेकिन
तेरे बगैर भी मैं जी लेता हूँ