Friday, May 21, 2010

बरखा की भोर - डॉ. देवव्रत जोशी

बनपाँखी बूँदोँ का शोर :
बरखा की भोर।

सूरज दिखाई नहीं देता साफ
अधजागा लेटा हूँ ओढकर लिहाफ
नाच रहे हैं अब तक आँखों में सपनों के भोर ।

मेघोँ की पँखुरियोँ में बंदी किरणोँ के छन्द धरती से उठकर फैली है आकाशोँ में माटी की गंध
स्नानवती दिशाएं समेट रहीं
आँचल के छोर ।

बनपाँखी बूँदोँ का शोर :
बरखा की भोर।

Thursday, May 20, 2010

आदमी को साँप भी डसता नहीं क्योँ आजकल -सीताराम गुप्ता

इंसानियत से आदमी सजता नहीं क्योँ आजकल
हैवानियत पर वार भी करता नहीं क्योँ आजकल

जब से पहनी और ओढी है सकाफत दोस्तो
आदमी से आदमी मिलता नहीं क्योँ आजकल

हर सिम्त है बज्मे तरन्नुम अँजुमन दर अँजुमन
साजे दिलकश पर कहीँ बजता नहीं क्योँ आजकल

तरबतर तेजाब में चीनी व्यँजन चुन लिए
हलवा पूरी खीर अब बनता नहीं क्योँ आजकल

ऊँची ऊँची मीनारेँ अब उठ रही है हर जगह
चावल हर हाँडी में फिर पकता नहीं क्योँ आजकल

जिस जगह देखो फिजा में गुँजती है गोलियाँ
अब धमाकों से कोई डरता नहीं क्योँ आजकल

काँन्टेक्ट लेँस अब मुल्क मेँ हर मुअल्ल्जि के पास है
आँख से फिर भी हमें दिखता नहीं क्योँ आजकल

आदमी की बात ही चुभती थी पैने डँक सी
आदमी को साँप भी डसता नहीं क्योँ आजकल

Wednesday, May 19, 2010

मुल्क मेरा इन दिनों शहरी करण की ओर है -JAYKRISHN RAY TUSHAR


ये नहीं पूछो कहाँ किस रंग का किस ओर है
इस व्यवस्था के घने जंगल में आदमखोर है

मुख्य सड़कों पर अँधेरे की भयावहता बढ़ी
जगमगाती रोशनी के बीच कारीडोर है

आत्महत्या पर किसानों की , सदन मे चुप्पियाँ
मुल्क मेरा इन दिनों शहरी करण की ओर है

भ्रष्टशासन तँत्र की नागिन बहुत लंबी हुई
है शरीके जंग कुछ तो नेवला या मोर है

कठपुतलियाँ हैं वही बदले हुए इस मंच पर
देखकर यह माजरा दर्शक बेचारा बोर है

नाव का जलमग्न होना चक्रवातोँ के बिना
है ये अंदेशा कि नाविक का हुनर कमजोर है

मौसमोँ ने कह दिया हालात सुधरे हैं मगर
शाम धुँधली दिन कळँकित रक्तरँजित भोर है

इन पतंगो का मुश्किल है उड़ना दूर तक
छत किसी की हाथ कोई और किसी की डोर है

किस तरह सदभावना के बीज का हो अँकुरण
एक है गूंगी पड़ोसन दूसरी मुँह जोर है

नाव पर चढ़ते समय भी भीड़ मे था शोरगुल
अब जो चीखेँ आ रही वो डूबने का शोर है

जिन्दगी लिखने लगी है - देवेन्द्र आर्य

जिन्दगी लिखने लगी है दर्द से अपनी कहानी
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ

आज बचपन बैठकर
मुझसे शिकायत कर रहा है
किन अभावों के लिए मन
छाँव तक पहुँचा नही था,
क्यूँ मुझे बहका दिया
कुछ रेत के देकर घरौँदे
मंजिलोँ के जुस्तजू को
आज तक बाँचा नही था

क्या कहूँ मैं किस तरह किस हाल में ढलता रहा हूँ
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ

अनसुनी कर दो भले
पर आज अपनी बात कह दूँ
एक अम्रित बूँद लाने
मैं सितारों तक गया हूँ
मुद्यतोँ से इस जगत की
प्यास का मुझको पता है
एक गंगा के लिए
सौ बार मै शिव तक गया हूँ

मैं सभी के भोर के हित दीप सा जलता रहा हूँ
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ

मानता हूँ आज मेरे
पाँव कुछ थक से गये हैं
और मीलों दूर भी
इस पंथ पर कब
तक चलूँगा
पर अभी तो आग बाकी है
अलावोँ को जलाओ
मैं स्रिजन के द्वार पर
नव भाव की वँशी बनूँगा

तुम चलो मैं हर खुशी के साथ मिल चलता रहा हूँ
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ

पेड़ - गुलजार


मोड़ पे देखा है , बूढ़ा सा एक पेड़ कभी
मेरा वाकिफ है सालों से मैं उसे जानता हूँ

जब मैं छोटा था तो एक आम उड़ाने के लिए
परली दीवार से कंधो पे चढ़ा था उसके
जाने दुखती हुई किस साख से जा पाँव लगा
धाड़  से फेंक दीया था मुझे नीचे उसने

और जब हामला थी बेवा तो हर दिन
मेरी बीवी की तरफ केरियाँ फेकी थी इसी ने






वख्त के साथ सभी फुल सभी पत्ते गए
तब भी जल जाता था जब मुन्ने से कहती बीबा
हाँ उसी पेड़ से आया है तू पेड़ का फल है
अब भी जल जाता हूँ जब खांसकर कहता है
क्यों सर के सभी बाल गए

सुबह से काट रहे हैं वो कमिटी वाले
मोड़ तक जाने की हिम्मत नहीं होती मुझको

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