Saturday, October 30, 2010

ज़मीं को ना बांटों,-Anjana (Gudia)

Gudiaji की  कलम  से : -

कब सरहदों से 
फ़ायदा हुआ इस ज़मीं को?
अभी भी दिल नहीं भरा,
बार-बार बाँट कर इस ज़मीं को?

सरहदें जैसे बदनुमा दाग़ हैं 
इस ज़मीं के चेहरे पर,
खुदगर्ज़ी के चाकू से फिर
ज़ख़्मी ना करो इस ज़मीं को

अगर टूट कर ही निजात मिलती,
तो सरहद पार सिर्फ खुशियाँ ही दिखती, 
सबक लो तारीख़ से
मत दो सज़ा और इस सरज़मीं को 

ज़मीं को ना बांटों,
दिलों को जोड़ लो,
मिल के रिझाओ कामयाबी को,
इतेहाद से सजाओ इस ज़मीं को 

मुद्दा नई सरहद का नहीं
खुशियों का हो, अमन का हो 
गुलों से खूबसूरत चेहरे खिल जाएं,
जन्नत फिर से बनायें इस ज़मीं को

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Wednesday, October 27, 2010

कुछ पंक्तियाँ - बच्चन


 मैं एक जगत को भुला 
मैं भुला एक ज़माना 
  कितने घटना चक्रों में , 
  भुला मै आना-जाना 
 पर दुःख-सुख की वह                                           
 सीमा, मैं पाया साकी 
जीवन के बाहर जाकर 
जीवन में तेरा आना


कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी ,
 कहाँ गयी सुरभित हाला  
कहाँ गया स्वप्निल मदिरालय 
कहाँ गया स्वर्णिम प्याला 
पीनेवालों ने मदिरा का मूल्य
हाय कब पहचाना 
फुट चूका जब मधु का प्याला ,
 टूट  चुकी जब मधुशाला !


सखि यह रागों की रात नही सोने की                                                         
बात जोहते इस रजनी की वज्र कठिन दिन बीते 
किन्तु अंत में दुनिया हारी और हमीं तुम जीते 
नरम नींद के आगे अब क्यों आँखें पंख झुकाए
सखि यह रातों  की रात नही सोने की !   


और अंत में 


इस पार प्रिये मधु है तुम हो 
उस पार न जाने क्या होगा !
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