Monday, December 24, 2012
Monday, October 15, 2012
मैं जानता हूँ, यही सच है! - A perception
मेरे ख़्वाबों के टुकड़ों को बिखेर कर देखना
शायद कोई टुकड़ा तुम्हारा भी हो!
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मैंने बारहा अपना आस्तित्व मिटाने की कोशिश की|
पर आस्तित्व विहीन होने के बजाय,
और मजबूत होता गया|
पीछे मूड़ के देखता हूँ, तो
असल में जिसे मैंने खोना चाहा था,
वो खोना नही था!
अजीब लगता है पर,
मैं जानता हूँ, यही सच है!
खोना भी पाने जैसा होता है|
अगर हम खोने के सिमटते दायरे को देख सकें,
तो पाने का बढ़ता दायरा साफ़ नज़र आने लगता है|
पर उलझनें तब दुखद अहसास देती है,
जब हमारी खुशी इन दायरों से परे,
कहीं और अटक जाती है|
क्या खोया? क्या पाया?
कितना अजीब है?
पाने के लिए थमना पड़ता है
समग्र नही व्यग्र होकर,
और थमना या रुकना क्या खोना नही है?
इसलिए, खोना या पाना शायद
हमारे अहसास से इतर कुछ भी नही!
हाँ, अजीब है, पर,
मैं जानता हूँ, यही सच है!
Thursday, April 26, 2012
तुम न होगी तो....
मैं सुबह के चाँद का एहसास लेकर क्या करूंगा ।
तुम न होगी तो वहां आकाश लेकर क्या करूंगा । ।
तुम न होगी तो वहां आकाश लेकर क्या करूंगा । ।
हो तरल कुछ तो
जिसे मन-प्राण-कंठों में उतारें
धुप की संवेदना
जल की मछलियों को दुलारे
यह नहीं तो उस तरफ संन्यास लेकर क्या करूंगा ।
तुम न होगी तो वहां आकाश लेकर क्या करूंगा । ।
एक गोकुल प्राण में हो
एक गोकुल प्राण ऊपर
मन कहीं पर रह गया हो
पोर भर का स्पर्श होकर
दिक् तुम्हारा, मैं उधर कम्पास लेकर क्या करूंगा ।
तुम न होगी तो वहां आकाश लेकर क्या करूंगा । ।
जो न लिखना तो
कहे क्या ख़ाक गूंगी व्यंजनाएँ
सात रंगों में ढली
उनचास पवनों की व्यथाएँ
गर बेमौसम तो वहां बसंताभास् लेकर क्या करूंगा ।
तुम न होगी तो वहां आकाश लेकर क्या करूंगा । ।
द्वारा रचित - हृदयेश्वर
‘गीतायन‘, प्रेमनगर, रामभद्र (रामचौरा), हाजीपुर-844101, वैशाली
(रविन्द्र प्रकाश जी को विशेष धन्यवाद, जिन्होंने इस सरल पर सुन्दर कविता को वटवृक्ष पर पोस्ट किया)
Friday, April 20, 2012
बचपन
मेरे पड़ोस में,
लिखते समय जेहन में गुलज़ार दा की आवाज़ थी....सो इसे उसी तरीके से पढेंगे तो शायद ज्यादा मजा आएगा!
ढ़ेड-एक साल का एक बच्चा रहता है
वो कन्नड़ है और मैं हिंदी,
गाहे-बगाहे जब भी पास से गुजरता हूँ,
इठलाता खिलखिलाता सामने दिखता है
मेरे घुटनों से आ लिपटता है
मैं देखता हूँ पीछे उसकी दादी
दूध और गुड़ी रोटी
का कटोरा लिए पास बुला रही है
मैं पूछता हूँ क्यूँ रे खाना नही खाना?
वो नही में सर डुलाता है
उसकी दादी समझ नही पाती, पर
वो नादान समझ लेता है
सारा खेल आँखों का है,
बचपन में हम किसी की गोद
में जाने से पहले
उसकी आँखों में झांककर
दोस्त और दुश्मन को ताड़ लेते थे
पर अब तो नजारा दुसरा है,
अब तो आँखे भी कमजोर है
और होठ भी सिल गए हैं
बात सिर्फ दो मिनट की है....
पर वो ‘नट’ मुझे बचपन वाली हठ याद दिला देता है!
लिखते समय जेहन में गुलज़ार दा की आवाज़ थी....सो इसे उसी तरीके से पढेंगे तो शायद ज्यादा मजा आएगा!
Sunday, March 25, 2012
बहुत फ़र्क है तुम्हारे और मेरे भारत में - त्रिपुरारि कुमार शर्मा
तुम्हारा भारत-
एक डंडे की नोक पर फड़फड़ाता हुआ तीन रंगों का चिथड़ा है
जो किसी दिन अपने ही पहिए के नीचे आकर
तोड़ देगा अपना दम
तुम्हारे दम भरने से पहले।
मेरा भारत-
चेतना की वह जागृत अवस्था है
जिसे किसी भी चीज़ (शरीर) की परवाह नहीं
जो अनंत है, असीम है
और बह रही है निरंतर।
तुम्हारा भारत-
सफ़ेद काग़ज़ के टुकड़े पर
महज कुछ लकीरों का समन्वय है
जो एक दूसरे के ऊपर से गुज़रती हुईं
आपस में ही उलझ कर मर जाएँगी एक दिन।
मेरा भारत-
एक स्वर विहीन स्वर है
एक आकार विहीन आकार है
जो सिमटा हुआ है ख़ुद में
और फैला हुआ है सारे अस्तित्व पर।
तुम्हारा भारत-
सरहदों में सिमटा हुआ ज़मीन का एक टुकड़ा है
जिसे तुम ‘माँ’ शब्द की आड़ में छुपाते रहे
और करते रहे बलात्कार हर एक लम्हा
लाँघकर निर्लज्जता की सारी सीमाओं को।
मेरा भारत-
शर्म के साए में पलती हुई एक युवती है
जो सुहागरात में उठा देती है अपना घुँघट
प्रेमी की आगोश में बुनती है एक समंदर
एक नए जीवन को जन्म देने के लिए।
तुम्हारा भारत-
राजनेताओं और तथा-कथित धर्म के ठेकेदारों
दोनों की मिली-जुली साज़िश है
जो टूटकर बिखर जाएगी किसी दिन
अपने ही तिलिस्म के बोझ से दब कर।
मेरा भारत-
कई मोतियों के बीच से गुज़रता हुआ
माला की शक्ल में वह धागा है
जो मोतियों के बग़ैर भी अपना वजूद रखता है।
बहुत फ़र्क है तुम्हारे और मेरे भारत में!
tripurarimedia@gmail.com
Friday, March 23, 2012
शहीद–ए-आज़म के नाम एक कविता - विपिन चौधरी
उस वक़्त भी होंगे तुम्हारी बेचैन करवटों के बरक्स
चैन से सोने वाले
आज भी बिलों में कुलबुलाते हैं
तुम्हारी जुनून मिजाज़ी को "खून की गर्मी” कहने वाले
तुमने भी तो दुनिया को बिना परखे ही जान लिया होगा
जब
कई लंगोटिए यार तुम्हारी उठा-पटक से
परेशान हो
कहीं दूर छिटक गए होंगे
तुम्हारी भीगी मसों की गर्म तासीर से
शीशमहलों में रहने वालों की
दही जम जाया करती होगी
दिमागी नसों की कुण्डी खोले बिना ही तुम
समझ गए होगे कि
इन्सान- इन्सान में जमीन आसमान जितना असीम
फर्क भी हो सकता है
अपने चारों ओर बंधी बेड़ियों
के भार को संभालते हुए
कोयले से जो लिखा होगा तुमने
उसे पढ़
कईयों ने जानबूझ कर अनजान बन
अपनी गर्दन घुमा ली होगा
कई ठूंठ बन गए होंगे और
कई बहरे, काने और लंगडे बन
अपनी बेबसियों का बखान करने लगें होंगे
परेशान आज भी बहुत है दुनिया,
ज़रा सा कुरेदने पर
लहू के आंसूओं की
खड़ी नदियाँ बहा सकती है
पर क्रांति की बात दूसरी-तीसरी है
जनेऊ अब भी खीज में उतार दे कोई
पर वह बात नहीं बनती
जो मसीहाई की गली की ओर मुडती हो
’क्रांति’ बोल-वचन का मीठा और सूफियाना मुहावरा बन
कईयों के सर पर चढ
आज भी बेलगाम हो
भिनभिनाता है
लहू में पंगे शेरे-पंजाब की
दिलावरी को याद करने के लिए
पंजों के बल खडे होना पड़ता है
पर
हमारी तो शुरुआ़त ही लड़खडाने से होती है
हम हर पन्ने को शुरू से लेकर अंत तक पढते हैं
और
लकीर को लकीर ही कहते है
रटे-रटाये प्रश्नों के बीच आये
एक टेढे प्रश्न को बीच में ही छोड़
भाग खडे होते हैं
जब क्रांति का अर्थ समझने के लिए इतिहास की पुस्तके उठाते हैं
और सिर्फ उनकी धुल ही झडती है हमसे
हमारे समझने बूझने का
पिरामिड अब इतना बौना हो गया है
कि हमारी मुंडी क्रांति की चौखट से
टकराने लगती है
रात-बेरात का चौकनापन और
लहू को निचोड़ कर
बर्फ की सिल्ली बना देंने
का सिद्धहस्त शऊर
अब कारोबारी धंदे पर ही अपनी सान चढाता है
शहीद – ए –आज़म,
इंसान से पिस्सु बनने की प्रक्रिया को
तुम नही देख पाए
पाए
यही शुक्र है
घुटनों के बल पर खडे हो
शुक्र की इन्ही सूखी रोटियों को
खा-खा कर
हमारी नस्लें अपने आगे का
रोजगार बढ़ाएगी
Friday, March 2, 2012
जफ़र - एक नज़र
मैं वो बादशाह था जिसका दरबार कभी ग़ालिब, दाग और जौक से सजा करता था
हाँ! मैं ही वो बादशाह था जिसकी पोती आज चाय पिलाकर गुजारा किया
करती है!
कहते हैं, जफ़र जफ़र न था
भारतीय इतिहास का गौरवमय सफर था
|
आंन्धियाँ गम की चलेंगी तो संवर जाउंगा
मैं तेरी जुल्फ नही जो रह-रह के बिखर जाउंगा
तुझसे बिछडा तो मत पूछ किधर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूँ समंदर में उतर जाऊँगा
नाखुदा मुझसे न होगी खुशामद तेरी
मैं वो खुद्दार हूँ कश्ती से उतर जाऊँगा
मुझको सूली पे चढाने की जरुरत क्या है
मेरे हाथों से कलम छीन लो, मर जाऊँगा
मुझको दुनिया से ‘जफ़र’ कौन मिटा सकता है
मैं तो शायर हूँ किताबों में बिखर जाउंगा – बहादुर शाह जफ़र
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