देखता हूँ, पांडिचेरी के इस औरो बीच पर
रेत से खेलती उस छोटी सी लड़की को,
हर बार अलग शक्लोसूरत की, घर जैसा बनाकर कुछ
लहरों का इंतज़ार करती है,
पुन: नए सिरे से नयी शक्ल....
कितनी महिलाएं और कितने लोग ऐसा सोच पाते
हैं?
वख्त से आगे खड़े होकर
वख्त के आने का इंतज़ार
सच को बुनने जैसा कुछ!
बारहा सच को बुनने की
कोशिश की,
कुछ यादों की पोटली से,
कुछ परकटे ख़्वाबों से,
कुछ मरासिम से,
घर और घरौंदे का फर्क
इत्ता सा ही होता है,
एक सच से बुनते हैं, एक ख्वाब से!
kya khhobsurati se keha aapne !!
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ReplyDeletenice post.....
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