मंज़र-ए-इश्क का फूलना फलना
ये दरिया-ए-मय है या फिर कोई दवाखाना
देर शब् तेरी जुम्बिश की आखिरी वो खलिश
हमने खोया था तुझे अब तेरा पाना
रूह को भी गम है तेरे फिराक का
कैदे-हयात में इक आस्तां है सागर-ओ-मीना
तुम थे तो एक शहर थी हयात में
अब एक दलील हूँ उस्सक बूटों का बना
इश्क एक दरिया-ए-ज़ख्म है या बाज़ीचा-ए-अत्फाल
मुझसे पूछो न , न किसी मीरां से पूछना
उसने दोस्त्दारों से पर्देकारी की, पर्देकारी में दोस्तदारी
सौदेबाज़ों से दोस्ती न की , वो दोस्ती में खूब सौदा करना
आज की रात फिर नही पढ़ा, ग़ज़ल लिख्खा है अनुपम ने
जो अब तलक समझ में नही आया, तो क्या अब समझ के करना !
published in ZEPHYR 2010
ReplyDeleteI´m really glad seeing on your blog part of your culture,shown by its natural flowers,crafts,pieces of art and photo of your land.It is essential to show our roots.Well done and keep on this trail.Elena
ReplyDeleteACTUALLY IT'S A POEM PENNED BY ME !
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