जहां को अपनी तबाही का इंतज़ार सा है
मनु की मछली न कश्ती की नूर और ये फज़ा
कि कतरे-कतरे में तूफ़ान बेकरार सा है
मैं किसको अपने गिरेबान का चाक दिखलाऊं
कि आज दामने-यजदान भी तार-तार सा है
सजा सवार के जिसपे हज़ार नाज़ किये
उसी पे खालिक-ए-कौनेन भी शर्मशार सा है
कोई तो सूद चुकाए कोई तो ज़िम्मा ले
उस इन्कलाब का जो आज तक उधार सा है !!
... sundar post !!!
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