Wednesday, October 20, 2010

कुछ पंक्तियाँ - कैफी आज़मी

कभी जमूद कभी सिर्फ इन्त्शार  सा है
 जहां को अपनी तबाही का इंतज़ार सा है

मनु की मछली न कश्ती की नूर और ये फज़ा 
कि कतरे-कतरे में तूफ़ान बेकरार सा है 

मैं किसको अपने गिरेबान का चाक दिखलाऊं 
कि आज दामने-यजदान  भी तार-तार सा है 

सजा सवार के जिसपे हज़ार नाज़ किये 
उसी पे खालिक-ए-कौनेन भी शर्मशार सा है

कोई तो सूद चुकाए कोई तो ज़िम्मा ले 
उस इन्कलाब का जो आज तक उधार सा है !! 

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