Saturday, September 10, 2011

बस्ती






परिंदे घर बनाने निकले हैं 
किसी के सरकलम को निकले हैं 

जिंदगी कैफियत से बीत जाए, अपनी 
बस इतना ख्वाब ले के निकले हैं 

अपनी धरती को जब उजाड़ चुके 
बस्तियां चाँद पर बसाने निकले हैं 

कौन सुनेगा यहाँ 'अनुपम' की 
सब अपनी दास्ताँ भुनाने निकले हैं

10 comments:

  1. जिंदगी कैफियत से बीत जाए, अपनी
    बस इतना ख्वाब ले के निकले हैं ... itna hi khwaab zaruri hai

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  2. अपनी धरती को जब उजाड़ चुके
    बस्तियां चाँद पर बसाने निकले हैं
    वाह! सुंदर अभिव्यक्ति।

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  3. अपनी धरती को जब उजाड़ चुके
    बस्तियां चाँद पर बसाने निकले हैं
    bahut sunder
    badhai
    rachana

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  4. अपनी धरती को जब उजाड़ चुके
    बस्तियां चाँद पर बसाने निकले हैं

    धरती पर तो ठीक से रहना नहीं आया लेकिन चाँद पर बस्तियां बनाने निकलना इंसान की किस बुद्धि का परिचायक है ....बहुत गहरे अर्थ संप्रेषित करती है आपकी यह रचना ...आपका आभार

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  5. बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना! शानदार प्रस्तुती!
    दुर्गा पूजा पर आपको ढेर सारी बधाइयाँ और शुभकामनायें !
    मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
    http://seawave-babli.blogspot.com
    http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/

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  6. वाह, बहुत बढिया


    परिंदे घर बनाने निकले हैं
    किसी के सरकलम को निकले हैं

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  7. अपनी धरती को जब उजाड़ चुके
    बस्तियां चाँद पर बसाने निकले हैं
    सुंदर अभिव्यक्ति!

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  8. बहुत सुन्दर प्रस्तुति, बधाई.

    कृपया मेरे ब्लॉग प् भी पधारने का कष्ट करें.

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