Friday, May 14, 2010

याद करने के लिए उम्र पड़ी हो जैसे- अहमद फराज

ऐसे चुप हैं, कि यह मंजिल की कड़ी हो जैसे
तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जैसे

अपने ही साए से हर गाम लरज जाता हूँ
रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे

कितने नादां हैं तेरे भूलने वाले कि तुझे
याद करने के लिए उम्र पड़ी हो जैसे







तेरे माथे की शिकन पहले भी देखी थी मगर
यह गिरह अब के मेरे दिल में पड़ी हो जैसे             

मंजिलेँ दूर भी है, मंजिलेँ नजदीक भी है
अपने ही पाँव में जंजीर पड़ी हो जैसे

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