Tuesday, March 29, 2011

आईना - Anupam Karn







आँख में आंसुओं  को सुलगता पाया 
उसने खुद से खुद को ढूंढता पाया
एक मरासिम ने आंच इस कदर दी थी
उसने सब्र को अब्र सा  लुढकता  पाया
रेत के मानिंद ढह गए थे जो
उनसे वख्त के आईने में एक मसीहा पाया
आज जब दीया फिर से जलने को है 
उसने  वख्त को आईने में भूलता पाया
वो होड़ जीत का था, ये शोर जीत का है
उसने अश्क को आईने में ढूंढता पाया !

4 comments:

  1. आपकी रचना सुन्दर है ! और पिछले पोस्ट में आपने जो जानकारी दी है वो मुझे बहुत अच्छा लगा ...

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  2. ख़ूबसूरत ग़ज़ल।

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  3. इश्क को आईने में ढूंढना तो अपना अक्स ही देखना है। इश्क को माशूका में ही पूर्णता मिलेगी।

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