आँख में आंसुओं को सुलगता पाया
उसने खुद से खुद को ढूंढता पाया
एक मरासिम ने आंच इस कदर दी थी
उसने सब्र को अब्र सा लुढकता पाया
रेत के मानिंद ढह गए थे जो
उनसे वख्त के आईने में एक मसीहा पाया
आज जब दीया फिर से जलने को है
उसने वख्त को आईने में भूलता पाया
वो होड़ जीत का था, ये शोर जीत का है
उसने अश्क को आईने में ढूंढता पाया !
आपकी रचना सुन्दर है ! और पिछले पोस्ट में आपने जो जानकारी दी है वो मुझे बहुत अच्छा लगा ...
ReplyDeleteख़ूबसूरत ग़ज़ल।
ReplyDeleteसुंदर रचना।
ReplyDeleteइश्क को आईने में ढूंढना तो अपना अक्स ही देखना है। इश्क को माशूका में ही पूर्णता मिलेगी।
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