शाम ढले तो अखियाँ तुझको बरबस ढूंढने लगती है
सुबह फिर अलसाई नजरें दुनिया देखने लगती है
नज़रें कहाँ-कहाँ न ढूँढी, चिराग तले अँधेरा छाया
ऋतू बसंत हो या सावन हो रह-रहकर छलकने लगती है
पहचान तुम्हारी हो या मेरी ,इसपर सर धुनना था कैसा
जो पहचान हमारी थी वो अब तो बासी लगती है
अब तो अलग- अलग हैं दोनों, नाम हमारे अलग-अलग
सोचो कितने दूर हुए क्यों अखियाँ प्यासी लगती है !
"पहचान तुम्हारी हो या मेरी ,इसपर सर धुनना था कैसा
ReplyDeleteजो पहचान हमारी थी वो अब तो बासी लगती है "
बहुत सुन्दर प्रस्तुति