Tuesday, December 28, 2010

तलाक - अनुपम कर्ण









शाम ढले तो अखियाँ तुझको बरबस ढूंढने लगती है
सुबह फिर अलसाई नजरें दुनिया देखने लगती है

नज़रें कहाँ-कहाँ न ढूँढी, चिराग तले अँधेरा छाया
ऋतू बसंत हो या सावन हो रह-रहकर छलकने लगती है

पहचान तुम्हारी हो या मेरी ,इसपर सर धुनना था कैसा
जो पहचान हमारी थी वो अब तो बासी लगती है

अब तो अलग- अलग हैं दोनों, नाम हमारे अलग-अलग
सोचो कितने दूर हुए क्यों अखियाँ प्यासी लगती है !

1 comment:

  1. "पहचान तुम्हारी हो या मेरी ,इसपर सर धुनना था कैसा
    जो पहचान हमारी थी वो अब तो बासी लगती है "
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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