Thursday, June 10, 2010

रफ्ता-रफ्ता द्वार से यूँ ही गुजर जाती है रात -अश्वघोष


रफ्ता-रफ्ता द्वार से यूँ ही गुजर जाती है रात
मैने देखा झील पर जाकर बिखर जाती है रात

मैं मिलूंगा कल सुबह इस रात से जाकर जरूर
जानता हूँ , बन संवरकर कब , किधर जाती है रात

हर कदम पर तीरगी है , हर तरफ एक शोर है
हर सुबह एकाध रहबर कत्ल कर जाती है रात

जैसे बिल्ली चुपके चुपके सीढ़ियाँ उतरे कहीं
आसमाँ से जिंदगी मे यूँ ही उतर जाती है रात

एक चिड़िया कुछ दिनों से पूछती है अश्वघोष
सिर्फ इस आहट को सुनके क्यों सिहर जाती है रात

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