Tuesday, March 29, 2011

आईना - Anupam Karn







आँख में आंसुओं  को सुलगता पाया 
उसने खुद से खुद को ढूंढता पाया
एक मरासिम ने आंच इस कदर दी थी
उसने सब्र को अब्र सा  लुढकता  पाया
रेत के मानिंद ढह गए थे जो
उनसे वख्त के आईने में एक मसीहा पाया
आज जब दीया फिर से जलने को है 
उसने  वख्त को आईने में भूलता पाया
वो होड़ जीत का था, ये शोर जीत का है
उसने अश्क को आईने में ढूंढता पाया !

Wednesday, February 23, 2011

मैं ...मैं हूँ तो मेरा मन, अब कहाँ मेरा ? - अनुपम कर्ण






वख्त दर वख्त दरकता है एक निशाँ मेरा
किसने आग़ी लगाई जो जल गया एक जहां मेरा


मेरी बंसी ने ही छीनी है मेरी आवाज को
गो तेरे किस्से बन गए एक नुमायाँ मेरा

मेरी रूहों से छलकती है तेरी आहों की खनक
वो तेरी खामोश सी नज़रें और एक अंदाज़--बयाँ मेरा 

मेरी तन्हाइयों से लिपटी है तेरी यादों की महक
मैं मैं हूँ तो मेरा मन अब कहाँ मेरा!

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Tuesday, December 28, 2010

तलाक - अनुपम कर्ण









शाम ढले तो अखियाँ तुझको बरबस ढूंढने लगती है
सुबह फिर अलसाई नजरें दुनिया देखने लगती है

नज़रें कहाँ-कहाँ न ढूँढी, चिराग तले अँधेरा छाया
ऋतू बसंत हो या सावन हो रह-रहकर छलकने लगती है

पहचान तुम्हारी हो या मेरी ,इसपर सर धुनना था कैसा
जो पहचान हमारी थी वो अब तो बासी लगती है

अब तो अलग- अलग हैं दोनों, नाम हमारे अलग-अलग
सोचो कितने दूर हुए क्यों अखियाँ प्यासी लगती है !
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