Wednesday, August 11, 2010
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ - देवेन्द्र आर्य
जिन्दगी लिखने लगी है दर्द से अपनी कहानी ,
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ
आज बचपन बैठकर
मुझसे शिकायत कर रहा है
किन अभावों के लिए मन
छाँव तक पहुँचा नहीं था ,
क्यों मुझे बहका दिया
कुछ रेत के देकर घरौँदे ?
मंजिलोँ की जुस्तजू को
आज तक बांचा नहीं था
क्या कहूँ मैं किस हाल में ढलता रहा हूँ
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ
अनसुनी कर दो भले
पर आज अपनी बात कह दूँ
एक अमृत - बूँद लाने
मैं सितारों तक गया हूँ
मुद्दतोँ से इस जगत की
प्यास का मुझको पता है
एक गंगा के लिए
सौ बार मैं शिव तक गया हूँ
मैं सभी के भोर के हित दीप सा जलता रहा हूँ
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ
मानता हूँ आज मेरे पाँव
कुछ थक से गए हैं
और मीलोँ दूर भी
इस पंथ पर कब तक चलूँगा ?
पर अभी तो आग बाकी है
अलावोँ को जलाओ
मैं सृजन के द्वार पर
नव भाव की वँशी बनूँगा
तुम चलो , मैं हर खुशी के साथ मिल चलता रहा हूँ ।
मैं सुबह से सुबह तक की बात ही करता रहा हूँ॥
Monday, June 28, 2010
झरते हैं शब्दबीज - बुद्धिनाथ मिश्र
आहिस्ता -आहिस्ता
एक- एक कर
झरते हैं शब्दबीज
मन के भीतर !
हरे धान उग आते
परती खेतों में
हहराते सागर हैं
बंद निकेतोँ में
धूप में चिटखता है
तन का पत्थर !
राह दिखाते सपने
अंधी खोहो में
द्रव सा ढलता मैं
शब्दों की देहोँ में
लिखवाती पीड़ा है
हाथ पकड़कर !
फसलें झलकेँ जैसे
अँकुरे दानों में
आँखों के आँसू
बतियाते कानों में
अर्थों से परे गूँजता
मद्धिम स्वर !
एक- एक कर
झरते हैं शब्दबीज
मन के भीतर !
हरे धान उग आते
परती खेतों में
हहराते सागर हैं
बंद निकेतोँ में
धूप में चिटखता है
तन का पत्थर !
राह दिखाते सपने
अंधी खोहो में
द्रव सा ढलता मैं
शब्दों की देहोँ में
लिखवाती पीड़ा है
हाथ पकड़कर !
फसलें झलकेँ जैसे
अँकुरे दानों में
आँखों के आँसू
बतियाते कानों में
अर्थों से परे गूँजता
मद्धिम स्वर !
Thursday, June 10, 2010
रफ्ता-रफ्ता द्वार से यूँ ही गुजर जाती है रात -अश्वघोष
रफ्ता-रफ्ता द्वार से यूँ ही गुजर जाती है रात
मैने देखा झील पर जाकर बिखर जाती है रात
मैं मिलूंगा कल सुबह इस रात से जाकर जरूर
जानता हूँ , बन संवरकर कब , किधर जाती है रात
हर कदम पर तीरगी है , हर तरफ एक शोर है
हर सुबह एकाध रहबर कत्ल कर जाती है रात
जैसे बिल्ली चुपके चुपके सीढ़ियाँ उतरे कहीं
आसमाँ से जिंदगी मे यूँ ही उतर जाती है रात
एक चिड़िया कुछ दिनों से पूछती है अश्वघोष
सिर्फ इस आहट को सुनके क्यों सिहर जाती है रात
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