Monday, October 15, 2012

मैं जानता हूँ, यही सच है! - A perception



















मेरे ख़्वाबों के टुकड़ों को बिखेर कर देखना

शायद कोई टुकड़ा तुम्हारा भी हो!

_______


मैंने बारहा अपना आस्तित्व मिटाने की कोशिश की|

पर आस्तित्व विहीन होने के बजाय,

और मजबूत होता गया|

पीछे मूड़ के देखता हूँ, तो

असल में जिसे मैंने खोना चाहा था,

वो खोना नही था!

अजीब लगता है पर,

मैं जानता हूँ, यही सच है!

खोना भी पाने जैसा होता है|

अगर हम खोने के सिमटते दायरे को देख सकें,

तो पाने का बढ़ता दायरा साफ़ नज़र आने लगता है|

पर उलझनें तब दुखद अहसास देती है,

जब हमारी खुशी इन दायरों से परे,

कहीं और अटक जाती है|

क्या खोया? क्या पाया?


कितना अजीब है?

पाने के लिए थमना पड़ता है

समग्र नही व्यग्र होकर,

और थमना या रुकना क्या खोना नही है?

इसलिए, खोना या पाना शायद

हमारे अहसास से इतर कुछ भी नही!

हाँ, अजीब है, पर,

मैं जानता हूँ, यही सच है!

Thursday, April 26, 2012

तुम न होगी तो....



मैं सुबह के चाँद का एहसास लेकर क्या करूंगा 
तुम न होगी तो वहां आकाश लेकर क्या करूंगा   

हो तरल कुछ तो 
जिसे मन-प्राण-कंठों में उतारें 
धुप की संवेदना 
जल की मछलियों को दुलारे 

यह नहीं तो उस तरफ संन्यास लेकर क्या करूंगा  
तुम न होगी तो वहां आकाश लेकर क्या करूंगा    

एक गोकुल प्राण में हो
एक गोकुल प्राण ऊपर 
मन कहीं पर रह गया हो
पोर भर का स्पर्श होकर 

दिक् तुम्हारा, मैं उधर कम्पास लेकर क्या करूंगा 
तुम न होगी तो वहां आकाश लेकर क्या करूंगा   

जो न लिखना तो 
कहे क्या ख़ाक गूंगी व्यंजनाएँ
सात रंगों में ढली 
उनचास पवनों की व्यथाएँ

गर बेमौसम तो वहां बसंताभास्  लेकर क्या करूंगा 
तुम न होगी तो वहां आकाश लेकर क्या करूंगा    



द्वारा रचित  - हृदयेश्वर 

‘गीतायन‘, प्रेमनगर, रामभद्र (रामचौरा), हाजीपुर-844101, वैशाली 
 (रविन्द्र प्रकाश जी को विशेष धन्यवाद, जिन्होंने इस सरल पर सुन्दर कविता को वटवृक्ष पर पोस्ट किया)

Friday, April 20, 2012

बचपन

मेरे पड़ोस में, 
ढ़ेड-एक साल का एक बच्चा रहता है
वो कन्नड़ है और मैं हिंदी,

गाहे-बगाहे जब भी पास से गुजरता हूँ, 
इठलाता खिलखिलाता सामने दिखता है
मेरे घुटनों से आ लिपटता है

मैं देखता हूँ पीछे उसकी दादी
दूध और गुड़ी रोटी का कटोरा लिए पास बुला रही है    
मैं पूछता हूँ क्यूँ रे खाना नही खाना?
वो नही में सर डुलाता है
उसकी दादी समझ नही पाती, पर 
वो नादान समझ लेता है

सारा खेल आँखों का है, 
बचपन में हम किसी की गोद में जाने से पहले
उसकी आँखों में झांककर 
दोस्त और दुश्मन को ताड़ लेते थे

पर अब तो नजारा दुसरा है,
अब तो आँखे भी कमजोर है 
और होठ भी सिल गए हैं
बात सिर्फ दो मिनट की है....
पर वो ‘नट’ मुझे बचपन वाली हठ याद दिला देता है!   



लिखते समय जेहन में गुलज़ार दा की आवाज़ थी....सो इसे उसी तरीके से पढेंगे तो शायद ज्यादा मजा आएगा!




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