Saturday, September 10, 2011

शब्द ख़ामोशी के





सात दिनों से पिता बेड पर ही था , गहरी चोट थी पैर में .
कई बार धीरे-धीरे उठने का प्रयास करता , पर हिम्मत टूट जाती .

पुत्र जो अपने काम में व्यस्त था , उस रात डाटते हुए कहा - ' क्या पिताजी ! आप प्रयास भी नही कर सकते , 
डॉक्टर ने कितनी बार कहा है चलने को , नही तो पैर हमेशा के लिए खराब हो जायेंगे... और आप हो की बेड पर ही परे रहते हो . '
पिता सहम कर रह गया .
उस रात उसने कई दफे उठ कर  चलने की चेष्टा की लेकिन पेरो की असह्य पीड़ा उसे फिर से बेड पर जाने को मजबूर कर देती . पुत्र ने सबकुछ खिडकी से देखा और झुंझलाकर सो गया . 

दूसरा लड़का जो अगली सुबह ही परदेश से आया था , पिताजी को देखने .
उसने ख़ामोशी से ही पिताजी की खामोश शक्लों को पढ़ लिया .
उठा , उठकर कंधा दिया , तीन दिनों बाद ही पिताजी चलने-फिरने लग गए 
लड़का पुनः परदेश चला गया

Friday, May 13, 2011

हम- तुम - अनुपम कर्ण

(1)

कुछ कदमों के फासले थे, 
रह गया इधर मैं, उधर तुम 
ज़माना बीच में खडा कहता रहा 
हारा मैं, जीत गए तुम !
(2)

खामोश सी थी जिंदगी 
हम भी चुप से रह गए
तुम ने चुप्पी तोड़ दी 
और फासले फिर बढ़ गए !
(3)

कुछ बातें ..........................
कुछ  किस्से......................
कुछ लम्हे .........................
कुछ यादें ..........................
...........................और मैं था !
..........................और तुम थे!

कितनी बातें ......................
कितने किस्से ...................
कुछ चाहे ...........................
कुछ अनचाहे ....................
..........................कहीं मैं था!
.........................कहीं तुम थे!

किसकी बातें .....................
किसके किस्से ..................
कितने पुराने ....................
कितने अनजाने ...............
.........................क्यों मैं था?
........................क्यों तुम थे?

Wednesday, April 20, 2011

कुछ पंक्तियाँ - सुभद्रा कुमारी चौहान

ये चंद पंक्तियाँ वाकई बचपन की यादों से बड़ी गहराई से जुड़े हैं| ये पंक्तियाँ इसलिए भी खास है क्योंकि मैंने अपनी माँ को अपनी मधुर लय में अक्सर इसे गुनगुनाते हुए सूना है| 
ये पंक्तियाँ सुभद्रा जी की प्रसिद्द कविता " मेरा बचपन " से लिया गया है | जितनी उनकी कवितायें प्रेरणादायक है उससे भी कहीं ज्यादा उनकी जीवनी !









बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥

चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?

ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥

किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥

रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥

मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥
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